Tuesday, October 15, 2013

शयनी एकादशी (आषाढ़ मास शुक्लपक्ष)

युधिष्ठिर ने पूछा : भगवन्! आषाढ़ के शुक्लपक्ष में कौन सी एकादशी होती हैउसका नाम और विधि क्या हैयह बतलाने की कृपा करें।
भगवान श्रीकृष्ण बोले : राजन् ! आषाढ़ शुक्लपक्ष की एकादशी का नाम शयनी’ है। मैं उसका वर्णन करता हूँ। वह महान पुण्यमयीस्वर्ग और मोक्ष प्रदान करनेवालीसब पापों को हरनेवाली तथा उत्तम व्रत है। आषाढ़ शुक्लपक्ष में शयनी एकादशी’ के दिन जिन्होंने कमल पुष्प से कमललोचन भगवान विष्णु का पूजन तथा एकादशी का उत्तम व्रत किया हैउन्होंने तीनों लोकों और तीनों सनातन देवताओं का पूजन कर लिया। हरिशयनी एकादशी’ के दिन मेरा एक स्वरुप राजा बलि के यहाँ रहता है और दूसरा क्षीरसागर में शेषनाग की शैय्या पर तब तक शयन करता हैजब तक आगामी कार्तिक की एकादशी नहीं आ जातीअत: आषाढ़ शुक्ल पक्ष की एकादशी से लेकर कार्तिक शुक्ल एकादशी तक मनुष्य को भलीभाँति धर्म का आचरण करना चाहिए। जो मनुष्य इस व्रत का अनुष्ठान करता हैवह परम गति को प्राप्त होता हैइस कारण यत्नपूर्वक इस एकादशी का व्रत करना चाहिए। एकादशी की रात में जागरण करके शंखचक्र और गदा धारण करनेवाले भगवान विष्णु की भक्तिपूर्वक पूजा करनी चाहिए। ऐसा करनेवाले पुरुष के पुण्य की गणना करने में चतुर्मुख ब्रह्माजी भी असमर्थ हैं। 
राजन्! जो इस प्रकार भोग और मोक्ष प्रदान करनेवाले सर्वपापहारी एकादशी के उत्तम व्रत का पालन करता हैवह जाति का चाण्डाल होने पर भी संसार में सदा मेरा प्रिय रहनेवाला है। जो मनुष्य दीपदानपलाश के पत्ते पर भोजन और व्रत करते हुए चौमासा व्यतीत करते हैंवे मेरे प्रिय हैं। चौमासे में भगवान विष्णु सोये रहते हैंइसलिए मनुष्य को भूमि पर शयन करना चाहिए। सावन में सागभादों में दहीक्वार में दूध और कार्तिक में दाल का त्याग कर देना चाहिए। जो चौमसे में ब्रह्मचर्य का पालन करता हैवह परम गति को प्राप्त होता है। राजन्! एकादशी के व्रत से ही मनुष्य सब पापों से मुक्त हो जाता हैअत: सदा इसका व्रत करना चाहिए। कभी भूलना नहीं चाहिए। शयनी’ और बोधिनी’ के बीच में जो कृष्णपक्ष की एकादशीयाँ होती हैंगृहस्थ के लिए वे ही व्रत रखने योग्य हैं - अन्य मासों की कृष्णपक्षीय एकादशी गृहस्थ के रखने योग्य नहीं होती। शुक्लपक्ष की सभी एकादशी करनी चाहिए। (श्री योग वेदांत सेवा समिति की पुस्तक "एकादशी व्रत कथाएँ" से)

कामिका एकादशी (श्रावण मास कृष्णपक्ष)

युधिष्ठिर ने पूछा : गोविन्द! वासुदेव! आपको मेरा नमस्कार है! श्रावण (गुजरात महाराष्ट्र के अनुसार आषाढ़) के कृष्णपक्ष में कौन सी एकादशी होती हैकृपया उसका वर्णन कीजिये।
भगवान श्रीकृष्ण बोले : राजन्! सुनो। मैं तुम्हें एक पापनाशक उपाख्यान सुनाता हूँजिसे पूर्वकाल में ब्रह्माजी ने नारदजी के पूछने पर कहा था। 
नारदजी ने प्रशन किया : हे भगवन्! हे कमलासन! मैं आपसे यह सुनना चाहता हूँ कि श्रावण के कृष्णपक्ष में जो एकादशी होती हैउसका क्या नाम हैउसके देवता कौन हैं तथा उससे कौन सा पुण्य होता हैप्रभो! यह सब बताइये। 
ब्रह्माजी ने कहा : नारद! सुनो। मैं सम्पूर्ण लोकों के हित की इच्छा से तुम्हारे प्रश्न का उत्तर दे रहा हूँ। श्रावण मास में जो कृष्णपक्ष की एकादशी होती है, उसका नाम कामिका’ है। उसके स्मरणमात्र से वाजपेय यज्ञ का फल मिलता है। उस दिन श्रीधरहरिविष्णुमाधव और मधुसूदन आदि नामों से भगवान का पूजन करना चाहिए। 
भगवान श्रीकृष्ण के पूजन से जो फल मिलता हैवह गंगाकाशीनैमिषारण्य तथा पुष्कर क्षेत्र में भी सुलभ नहीं है। सिंह राशि के बृहस्पति होने पर तथा व्यतीपात और दण्डयोग में गोदावरी स्नान से जिस फल की प्राप्ति होती हैवही फल भगवान श्रीकृष्ण के पूजन से भी मिलता है। 
जो समुद्र और वनसहित समूची पृथ्वी का दान करता है तथा जो कामिका एकादशी’ का व्रत करता हैवे दोनों समान फल के भागी माने गये हैं। 
जो ब्यायी हुई गाय को अन्यान्य सामग्रियों सहित दान करता हैउस मनुष्य को जिस फल की प्राप्ति होती हैवही कामिका एकादशी’ का व्रत करनेवाले को मिलता है। जो नरश्रेष्ठ श्रावण मास में भगवान श्रीधर का पूजन करता हैउसके द्वारा गन्धर्वों और नागोंसहित सम्पूर्ण देवताओं की पूजा हो जाती है। 
अत: पापभीरु मनुष्यों को यथाशक्ति पूरा प्रयत्न करके कामिका एकादशी’ के दिन श्रीहरि का पूजन करना चाहिए। जो पापरुपी पंक से भरे हुए संसारसमुद्र में डूब रहे हैंउनका उद्धार करने के लिए कामिका एकादशी’ का व्रत सबसे उत्तम है। अध्यात्म विधापरायण पुरुषों को जिस फल की प्राप्ति होती हैउससे बहुत अधिक फल कामिका एकादशी’ व्रत का सेवन करनेवालों को मिलता है। 
कामिका एकादशी’ का व्रत करनेवाला मनुष्य रात्रि में जागरण करके न तो कभी भयंकर यमदूत का दर्शन करता है और न कभी दुर्गति में ही पड़ता है। लालमणिमोतीवैदूर्य और मूँगे आदि से पूजित होकर भी भगवान विष्णु वैसे संतुष्ट नहीं होतेजैसे तुलसीदल से पूजित होने पर होते हैं। जिसने तुलसी की मंजरियों से श्रीकेशव का पूजन कर लिया हैउसके जन्मभर का पाप निश्चय ही नष्ट हो जाता है। 
या दृष्टा निखिलाघसंघशमनी स्पृष्टा वपुष्पावनी
रोगाणामभिवन्दिता निरसनी सिक्तान्तकत्रासिनी।
प्रत्यासत्तिविधायिनी भगवत: कृष्णस्य संरोपिता
न्यस्ता तच्चरणे विमुक्तिफलदा तस्यै तुलस्यै नम:॥ 
जो दर्शन करने पर सारे पापसमुदाय का नाश कर देती हैस्पर्श करने पर शरीर को पवित्र बनाती हैप्रणाम करने पर रोगों का निवारण करती हैजल से सींचने पर यमराज को भी भय पहुँचाती हैआरोपित करने पर भगवान श्रीकृष्ण के समीप ले जाती है और भगवान के चरणों मे चढ़ाने पर मोक्षरुपी फल प्रदान करती हैउस तुलसी देवी को नमस्कार है। 
जो मनुष्य एकादशी को दिन रात दीपदान करता हैउसके पुण्य की संख्या चित्रगुप्त भी नहीं जानते। एकादशी के दिन भगवान श्रीकृष्ण के सम्मुख जिसका दीपक जलता हैउसके पितर स्वर्गलोक में स्थित होकर अमृतपान से तृप्त होते हैं। घी या तिल के तेल से भगवान के सामने दीपक जलाकर मनुष्य देह त्याग के पश्चात् करोड़ो दीपकों से पूजित हो स्वर्गलोक में जाता है। 
भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं : युधिष्ठिर! यह तुम्हारे सामने मैंने कामिका एकादशी’ की महिमा का वर्णन किया है। कामिका’ सब पातकों को हरनेवाली हैअत: मानवों को इसका व्रत अवश्य करना चाहिए। यह स्वर्गलोक तथा महान पुण्यफल प्रदान करनेवाली है। जो मनुष्य श्रद्धा के साथ इसका माहात्म्य श्रवण करता हैवह सब पापों से मुक्त हो श्रीविष्णुलोक में जाता है (श्री योग वेदांत सेवा समिति की पुस्तक "एकादशी व्रत कथाएँ" से)

एकादशी रात्रि में श्रीहरि के समीप जागरण का माहात्मय

सब धर्मों के ज्ञातावेद और शास्त्रों के अर्थज्ञान में पारंगतसबके हृदय में रमण करनेवाले श्रीविष्णु के तत्त्व को जाननेवाले तथा भगवत्परायण प्रह्लादजी जब सुखपूर्वक बैठे हुए थेउस समय उनके समीप स्वधर्म का पालन करनेवाले महर्षि कुछ पूछने के लिए आये।
महर्षियों ने कहा : प्रह्रादजी! आप कोई ऐसा साधन बताइयेजिससे ज्ञानध्यान और इन्द्रियनिग्रह के बिना ही अनायास भगवान विष्णु का परम पद प्राप्त हो जाता है।
उनके ऐसा कहने पर संपूर्ण लोकों के हित के लिए उद्यत रहनेवाले विष्णुभक्त महाभाग प्रह्रादजी ने संक्षेप में इस प्रकार कहा: महर्षियों! जो अठारह पुराणों का सार से भी सारतर तत्त्व हैजिसे कार्तिकेयजी के पूछने पर भगवान शंकर ने उन्हें बताया थाउसका वर्णन करता हूँसुनिये।
महादेवजी कार्तिकेय से बोले : जो कलि में एकादशी की रात में जागरण करते समय वैष्णव शास्त्र का पाठ करता हैउसके कोटि जन्मों के किये हुए चार प्रकार के पाप नष्ट हो जाते हैं। जो एकादशी के दिन वैष्णव शास्त्र का उपदेश करता हैउसे मेरा भक्त जानना चाहिए। 
जिसे एकादशी के जागरण में निद्रा नहीं आती तथा जो उत्साहपूर्वक नाचता और गाता हैवह मेरा विशेष भक्त है। मैं उसे उत्तम ज्ञान देता हूँ और भगवान विष्णु मोक्ष प्रदान करते हैं। अत: मेरे भक्त को विशेष रुप से जागरण करना चाहिए। जो भगवान विष्णु से वैर करते हैंउन्हें पाखण्डी जानना चाहिए। जो एकादशी को जागरण करते और गाते हैंउन्हें आधे निमेष में अग्निष्टोम तथा अतिरात्र यज्ञ के समान फल प्राप्त होता है। जो रात्रि जागरण में बारंबार भगवान विष्णु के मुखारविंद का दर्शन करते हैंउनको भी वही फल प्राप्त होता है। जो मानव द्वादशी तिथि को भगवान विष्णु के आगे जागरण करते हैंवे यमराज के पाश से मुक्त हो जाते हैं। 
जो द्वादशी को जागरण करते समय गीता शास्त्र से मनोविनोद करते हैंवे भी यमराज के बन्धन से मुक्त हो जाते हैं। जो प्राणत्याग हो जाने पर भी द्वादशी का जागरण नहीं छोड़तेवे धन्य और पुण्यात्मा हैं। जिनके वंश के लोग एकादशी की रात में जागरण करते हैंवे ही धन्य हैं। जिन्होंने एकादशी को जागरण किया हैंउन्होंने यज्ञदानगयाश्राद्ध और नित्य प्रयागस्नान कर लिया। उन्हें संन्यासियों का पुण्य भी मिल गया और उनके द्वारा इष्टापूर्त कर्मों का भी भलीभाँति पालन हो गया। षडानन ! भगवान विष्णु के भक्त जागरणसहित एकादशी व्रत करते हैंइसलिए वे मुझे सदा ही विशेष प्रिय हैं। जिसने वर्द्धिनी एकादशी की रात में जागरण किया हैउसने पुन: प्राप्त होनेवाले शरीर को स्वयं ही भस्म कर दिया। जिसने त्रिस्पृशा एकादशी को रात में जागरण किया हैवह भगवान विष्णु के स्वरुप में लीन हो जाता है। जिसने हरिबोधिनी एकादशी की रात में जागरण किया हैउसके स्थूल सूक्ष्म सभी पाप नष्ट हो जाते हैं। जो द्वादशी की रात में जागरण तथा ताल स्वर के साथ संगीत का आयोजन करता हैउसे महान पुण्य की प्राप्ति होती है। जो एकादशी के दिन ॠषियों द्वारा बनाये हुए दिव्य स्तोत्रों सेॠग्वेदयजुर्वेद तथा सामवेद के वैष्णव मन्त्रों सेसंस्कृत और प्राकृत के अन्य स्तोत्रों से व गीत वाद्य आदि के द्वारा भगवान विष्णु को सन्तुष्ट करता है उसे भगवान विष्णु भी परमानन्द प्रदान करते हैं। 
य: पुन: पठते रात्रौ गातां नामसहस्रकम्। 
द्वादश्यां पुरतो विष्णोर्वैष्णवानां समापत:।
स गच्छेत्परम स्थान यत्र नारायण: त्वयम् । 
जो एकादशी की रात में भगवान विष्णु के आगे वैष्णव भक्तों के समीप गीता और विष्णुसहस्रनाम का पाठ करता हैवह उस परम धाम में जाता हैजहाँ साक्षात् भगवान नारायण विराजमान हैं। 
पुण्यमय भागवत तथा स्कन्दपुराण भगवान विष्णु को प्रिय हैं। मथुरा और व्रज में भगवान विष्णु के बालचरित्र का जो वर्णन किया गया हैउसे जो एकादशी की रात में भगवान केशव का पूजन करके पढ़ता हैउसका पुण्य कितना हैयह मैं भी नहीं जानता। कदाचित् भगवान विष्णु जानते हों। बेटा! भगवान के समीप गीतनृत्य तथा स्तोत्रपाठ आदि से जो फल होता हैवही कलि में श्रीहरि के समीप जागरण करते समय विष्णुसहस्रनामगीता तथा श्रीमद्भागवत’ का पाठ करने से सहस्र गुना होकर मिलता है। 
जो श्रीहरि के समीप जागरण करते समय रात में दीपक जलाता हैउसका पुण्य सौ कल्पों में भी नष्ट नहीं होता। जो जागरणकाल में मंजरीसहित तुलसीदल से भक्तिपूर्वक श्रीहरि का पूजन करता हैउसका पुन: इस संसार में जन्म नहीं होता।
स्नानचन्दनलेपधूपदीपनैवेघ और ताम्बूल यह सब जागरणकाल में भगवान को समर्पित किया जाय तो उससे अक्षय पुण्य होता है। कार्तिकेय ! जो भक्त मेरा ध्यान करना चाहता हैवह एकादशी की रात्रि में श्रीहरि के समीप भक्तिपूर्वक जागरण करे। एकादशी के दिन जो लोग जागरण करते हैं उनके शरीर में इन्द्र आदि देवता आकर स्थित होते हैं। जो जागरणकाल में महाभारत का पाठ करते हैंवे उस परम धाम में जाते हैं जहाँ संन्यासी महात्मा जाया करते हैं। जो उस समय श्रीरामचन्द्रजी का चरित्रदशकण्ठ वध पढ़ते हैं वे योगवेत्ताओं की गति को प्राप्त होते हैं। 
जिन्होंने श्रीहरि के समीप जागरण किया हैउन्होंने चारों वेदों का स्वाध्यायदेवताओं का पूजनयज्ञों का अनुष्ठान तथा सब तीर्थों में स्नान कर लिया। श्रीकृष्ण से बढ़कर कोई देवता नहीं है और एकादशी व्रत के समान दूसरा कोई व्रत नहीं है। जहाँ भागवत शास्त्र हैभगवान विष्णु के लिए जहाँ जागरण किया जाता है और जहाँ शालग्राम शिला स्थित होती हैवहाँ साक्षात् भगवान विष्णु उपस्थित होते हैं।
व्रत खोलने की विधि :
द्वादशी को सेवापूजा की जगह पर बैठकर भुने हुए सात चनों के चौदह टुकड़े करके अपने सिर के पीछे फेंकना चाहिए। मेरे सात जन्मों के शारीरिकवाचिक और मानसिक पाप नष्ट हुए’ - यह भावना करके सात अंजलि जल पीना और चने के सात दाने खाकर व्रत खोलना चाहिए।

(श्री योग वेदांत सेवा समिति की पुस्तक "एकादशी व्रत कथाएँ" से)

Monday, October 14, 2013

योगिनी एकादशी (आषाढ़ मॉस कृष्णपक्ष)

युधिष्ठिर ने पूछा : वासुदेव! आषाढ़ के कृष्णपक्ष में जो एकादशी होती हैउसका क्या नाम हैकृपया उसका वर्णन कीजिये।
भगवान श्रीकृष्ण बोले : नृपश्रेष्ठ! आषाढ़ (गुजरात महाराष्ट्र के अनुसार ज्येष्ठ) के कृष्णपक्ष की एकादशी का नाम योगिनी’ है। यह बड़े बडे पातकों का नाश करनेवाली है। संसारसागर में डूबे हुए प्राणियों के लिए यह सनातन नौका के समान है।
अलकापुरी के राजाधिराज कुबेर सदा भगवान शिव की भक्ति में तत्पर रहनेवाले हैं। उनका हेममाली’ नामक एक यक्ष सेवक थाजो पूजा के लिए फूल लाया करता था। हेममाली की पत्नी का नाम विशालाक्षी’ था। वह यक्ष कामपाश में आबद्ध होकर सदा अपनी पत्नी में आसक्त रहता था। एक दिन हेममाली मानसरोवर से फूल लाकर अपने घर में ही ठहर गया और पत्नी के प्रेमपाश में खोया रह गयाअत: कुबेर के भवन में न जा सका। इधर कुबेर मन्दिर में बैठकर शिव का पूजन कर रहे थे। उन्होंने दोपहर तक फूल आने की प्रतीक्षा की। जब पूजा का समय व्यतीत हो गया तो यक्षराज ने कुपित होकर सेवकों से कहा : यक्षों ! दुरात्मा हेममाली क्यों नहीं आ रहा है?’ 
यक्षों ने कहा: राजन् ! वह तो पत्नी की कामना में आसक्त हो घर में ही रमण कर रहा है। यह सुनकर कुबेर क्रोध से भर गये और तुरन्त ही हेममाली को बुलवाया। वह आकर कुबेर के सामने खड़ा हो गया। उसे देखकर कुबेर बोले : ओ पापी! अरे दुष्ट! ओ दुराचारी! तूने भगवान की अवहेलना की हैअत: कोढ़ से युक्त और अपनी उस प्रियतमा से वियुक्त होकर इस स्थान से भ्रष्ट होकर अन्यत्र चला जा। 
कुबेर के ऐसा कहने पर वह उस स्थान से नीचे गिर गया। कोढ़ से सारा शरीर पीड़ित था परन्तु शिव पूजा के प्रभाव से उसकी स्मरणशक्ति लुप्त नहीं हुई। तदनन्तर वह पर्वतों में श्रेष्ठ मेरुगिरि के शिखर पर गया। वहाँ पर मुनिवर मार्कण्डेयजी का उसे दर्शन हुआ। पापकर्मा यक्ष ने मुनि के चरणों में प्रणाम किया। मुनिवर मार्कण्डेय ने उसे भय से काँपते देख कहा : तुझे कोढ़ के रोग ने कैसे दबा लिया?’ 
यक्ष बोला : मुने! मैं कुबेर का अनुचर हेममाली हूँ। मैं प्रतिदिन मानसरोवर से फूल लाकर शिव पूजा के समय कुबेर को दिया करता था। एक दिन पत्नी सहवास के सुख में फँस जाने के कारण मुझे समय का ज्ञान ही नहीं रहाअत: राजाधिराज कुबेर ने कुपित होकर मुझे शाप दे दियाजिससे मैं कोढ़ से आक्रान्त होकर अपनी प्रियतमा से बिछुड़ गया। मुनिश्रेष्ठ! संतों का चित्त स्वभावत: परोपकार में लगा रहता हैयह जानकर मुझ अपराधी को कर्त्तव्य का उपदेश दीजिये।
मार्कण्डेयजी ने कहा: तुमने यहाँ सच्ची बात कही हैइसलिए मैं तुम्हें कल्याणप्रद व्रत का उपदेश करता हूँ। तुम आषाढ़ मास के कृष्णपक्ष की योगिनी एकादशी’ का व्रत करो। इस व्रत के पुण्य से तुम्हारा कोढ़ निश्चय ही दूर हो जायेगा। 
भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं: राजन्! मार्कण्डेयजी के उपदेश से उसने योगिनी एकादशी’ का व्रत कियाजिससे उसके शरीर को कोढ़ दूर हो गया। उस उत्तम व्रत का अनुष्ठान करने पर वह पूर्ण सुखी हो गया। 
नृपश्रेष्ठ! यह योगिनी’ का व्रत ऐसा पुण्यशाली है कि अठ्ठासी हजार ब्राह्मणों को भोजन कराने से जो फल मिलता हैवही फल योगिनी एकादशी’ का व्रत करनेवाले मनुष्य को मिलता है। योगिनी’ महान पापों को शान्त करनेवाली और महान पुण्य फल देनेवाली है। इस माहात्म्य को पढ़ने और सुनने से मनुष्य सब पापों से मुक्त हो जाता है। (श्री योग वेदांत सेवा समित की पुस्तक "एकादशी व्रत कथाएँ" से)

Sunday, October 13, 2013

समस्त पापनाशक स्तोत्र

भगवान वेदव्यास द्वारा रचित अठारह पुराणों में से एक 'अग्नि पुराण' में अग्निदेव द्वारा महर्षि वशिष्ठ को दिये गये विभिन्न उपदेश हैं। इसी के अंतर्गत इस पापनाशक स्तोत्र के बारे में महात्मा पुष्कर कहते हैं कि मनुष्य चित्त की मलिनतावश चोरी, हत्या, परस्त्रीगमन आदि विभिन्न पाप करता है, पर जब चित्त कुछ शुद्ध होता है तब उसे इन पापों से मुक्ति की इच्छा होती है। उस समय भगवान नारायण की दिव्य स्तुति करने से समस्त पापों का प्रायश्चित पूर्ण होता है। इसीलिए इस दिव्य स्तोत्र का नाम 'समस्त पापनाशक स्तोत्र' है। निम्निलिखित प्रकार से भगवान नारायण की स्तुति करें  -
पुष्करोवाच विष्णवे विष्णवे नित्यं विष्णवे नमः। नमामि विष्णुं चित्तस्थमहंकारगतिं हरिम्।।
चित्तस्थमीशमव्यक्तमनन्तमपराजितम्। विष्णुमीड्यमशेषेण अनादिनिधनं विभुम्।।
विष्णुश्चित्तगतो यन्मे विष्णुर्बुद्धिगतश्च यत्। यच्चाहंकारगो विष्णुर्यद्वष्णुर्मयि संस्थितः।।
करोति कर्मभूतोऽसौ स्थावरस्य चरस्य च। तत् पापं नाशमायातु तस्मिन्नेव हि चिन्तिते।।
ध्यातो हरति यत् पापं स्वप्ने दृष्टस्तु भावनात्। तमुपेन्द्रमहं विष्णुं प्रणतार्तिहरं हरिम्।।
जगत्यस्मिन्निराधारे मज्जमाने तमस्यधः। हस्तावलम्बनं विष्णु प्रणमामि परात्परम्।।
सर्वेश्वरेश्वर विभो परमात्मन्नधोक्षज। हृषीकेश हृषीकेश हृषीकेश नमोऽस्तु ते।।
नृसिंहानन्त गोविन्द भूतभावन केशव। दुरूक्तं दुष्कृतं ध्यातं शमयाघं नमोऽस्तु ते।।
यन्मया चिन्तितं दुष्टं स्वचित्तवशवर्तिना। अकार्यं महदत्युग्रं तच्छमं नय केशव।।
बह्मण्यदेव गोविन्द परमार्थपरायण। जगन्नाथ जगद्धातः पापं प्रशमयाच्युत।।
यथापराह्ने सायाह्ने मध्याह्ने तथा निशि। कायेन मनसा वाचा कृतं पापमजानता।।
जानता हृषीकेश पुण्डरीकाक्ष माधव। नामत्रयोच्चारणतः पापं यातु मम क्षयम्।।
शरीरं में हृषीकेश पुण्डरीकाक्ष माधव। पापं प्रशमयाद्य त्वं वाक्कृतं मम माधव।।
यद् भुंजन् यत् स्वपंस्तिष्ठन् गच्छन् जाग्रद यदास्थितः। कृतवान् पापमद्याहं कायेन मनसा गिरा।।
यत् स्वल्पमपि यत् स्थूलं कुयोनिनरकावहम्। तद् यातु प्रशमं सर्वं वासुदेवानुकीर्तनात्।।
परं ब्रह्म परं धाम पवित्रं परमं यत्। तस्मिन् प्रकीर्तिते विष्णौ यत् पापं तत् प्रणश्यतु।।
यत् प्राप्य निवर्तन्ते गन्धस्पर्शादिवर्जितम्। सूरयस्तत् पदं विष्णोस्तत् सर्वं शमयत्वघम्।।
माहात्म्यम्
पापप्रणाशनं स्तोत्रं यः पठेच्छृणुयादपि। शारीरैर्मानसैर्वाग्जैः कृतैः पापैः प्रमुच्यते।।
सर्वपापग्रहादिभ्यो याति विष्णोः परं पदम्। तस्मात् पापे कृते जप्यं स्तोत्रं सर्वाघमर्दनम्।।
प्रायश्चित्तमघौघानां स्तोत्रं व्रतकृते वरम्। प्रायश्चित्तैः स्तोत्रजपैर्व्रतैर्नश्यति पातकम्।।
अर्थः पुष्कर बोलेः "सर्वव्यापी विष्णु को सदा नमस्कार है। श्री हरि विष्णु को नमस्कार है। मैं अपने चित्त में स्थित सर्वव्यापी, अहंकारशून्य श्रीहरि को नमस्कार करता हूँ। मैं अपने मानस में विराजमान अव्यक्त, अनन्त और अपराजित परमेश्वर को नमस्कार करता हूँ। सबके पूजनीय, जन्म और मरण से रहित, प्रभावशाली श्रीविष्णु को नमस्कार है। विष्णु मेरे चित्त में निवास करते हैं, विष्णु मेरी बुद्धि में विराजमान हैं, विष्णु मेरे अहंकार में प्रतिष्ठित हैं और विष्णु मुझमें भी स्थित हैं।
वे श्री विष्णु ही चराचर प्राणियों के कर्मों के रूप में स्थित हैं, उनके चिंतन से मेरे पाप का विनाश हो। जो ध्यान करने पर पापों का हरण करते हैं और भावना करने से स्वप्न में दर्शन देते हैं, इन्द्र के अनुज, शरणागतजनों का दुःख दूर करने वाले उन पापापहारी श्रीविष्णु को मैं नमस्कार करता हूँ।
मैं इस निराधार जगत में अज्ञानांधकार में डूबते हुए को हाथ का सहारा देने वाले परात्परस्वरूप श्रीविष्णु के सम्मुख नतमस्तक होता हूँ। सर्वेश्वरेश्वर प्रभो !कमलनयन परमात्मन् ! हृषीकेश ! आपको नमस्कार है। इन्द्रियों के स्वामी श्रीविष्णो ! आपको नमस्कार है। नृसिंह ! अनन्तस्वरूप गोविन्द ! समस्त भूत-प्राणियों की सृष्टि करने वाले केशव ! मेरे द्वारा जो दुर्वचन कहा गया हो अथवा पापपूर्ण चिंतन किया गया हो, मेरे उस पाप का प्रशमन कीजिये, आपको नमस्कार है। केशव ! अपने मन के वश में होकर मैंने जो करने योग्य अत्यंत उग्र पापपूर्ण चिंतन किया है, उसे शांत कीजिये। परमार्थपरायण, ब्राह्मणप्रिय गोविन्द ! अपनी मर्यादा से कभी च्युत होने वाले जगन्नाथ ! जगत का भरण-पोषण करने वाले देवेश्वर ! मेरे पाप का विनाश कीजिये। मैंने मध्याह्न, अपराह्न, सायंकाल एवं रात्रि के समय जानते हुए अथवा अनजाने, शरीर, मन एवं वाणी के द्वारा जो पाप किया हो, 'पुण्डरीकाक्ष', 'हृषीकेश', 'माधव'आपके इन तीन नामों के उच्चारण से मेरे वे सब पाप क्षीण हो जायें। कमलनयन ! लक्ष्मीपते ! इन्द्रियों के स्वामी माधव ! आज आप मेरे शरीर एवं वाणी द्वारा किये हुए पापों का हनन कीजिये। आज मैंने खाते, सोते, खड़े, चलते अथवा जागते हुए मन, वाणी और शरीर से जो भी नीच योनि एवं नरक की प्राप्ति कराने वाले सूक्ष्म अथवा स्थूल पाप किये हों, भगवान वासुदेव के नामोच्चारण से वे सब विनष्ट हो जायें। जो परब्रह्म, परम धाम और परम पवित्र हैं, उन श्रीविष्णु के संकीर्तन से मेरे पाप लुप्त हो जायें। जिसको प्राप्त होकर ज्ञानीजन पुनः लौटकर नहीं आते, जो गंध, स्पर्श आदि तन्मात्राओं से रहित है, श्रीविष्णु का वह परम पद मेरे सम्पूर्ण पापों का शमन करे।"
माहात्म्यः जो मनुष्य पापों का विनाश करने वाले इस स्तोत्र का पठन अथवा श्रवण करता है, वह शरीर, मन और वाणीजनित समस्त पापों से छूट जाता है एवं समस्त पापग्रहों से मुक्त होकर श्रीविष्णु के परम पद को प्राप्त होता है। इसलिए किसी भी पाप के हो जाने पर इस स्तोत्र का जप करें। यह स्तोत्र पापसमूहों के प्रायश्चित के समान है। कृच्छ्र आदि व्रत करने वाले के लिए भी यह श्रेष्ठ है। स्तोत्र-जप और व्रतरूप प्रायश्चित से सम्पूर्ण पाप नष्ट हो जाते हैं। इसलिए भोग और मोक्ष की सिद्धि के लिए इनका अनुष्ठान करना चाहिए।